|| राग गौती ||१|
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रोला-छन्द |*|१|
पंचम तत्त्व बखान
नाम श्रीवास कहायें|
शुद्ध-भक्त तिनि जान
भक्त सब वंदन गायें||१| ||विश्राम||
अनुवाद: अब हम पंचतत्त्व में पांचवें तत्त्व–
श्रीवास प्रभु का चालीसा-गान कर रहे हैं|
सभी भक्त इनको पञ्चतत्त्व में ‘शुद्ध-भक्त’ जान करके आपकी वंदना करते हैं|१| ||विश्राम||
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: ‘शुद्धभक्त’ वे हैं जो ‘शुद्धभक्ति’ करते है| शुद्धभक्ति के बारे में श्रील रूप गोस्वामी कहते हैं–
अन्याभिलाषिता
शून्यं ज्ञान कर्माद्यनावृतम्| अनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा||
(भक्ति रसामृत सिन्धु– १/१/११)– केवल एकमात्र श्रीकृष्ण की ही प्रसन्नता के लिए,
उनके अनुकूल-भाव में की गयी भक्ति,
जोकि ज्ञान (निराकारवादी ब्रह्मज्ञान तथा उसके फल मोक्ष) से
रहित हो एवं कर्म (कर्मफल) की कामना से सर्वथा रहित हो–
ऐसे भक्ति को उत्तमा-भक्ति या शुद्धभक्ति कहते हैं|
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चौपाई छन्द |*|२|
जय जय श्रीवासहिं प्रभु जय जय|
जलधर पंडित नंदन जय जय||१|
अनुवाद : श्रीवास प्रभु की जय हो! जय हो! श्रीमान जलधर प्रभु के
सुपुत्र श्रीवास प्रभु की जय हो! जय हो|१|
जय जय जय नारद अवतारा|
सुंदर गौर सुभक्ति प्रसारा||२|
अनुवाद : देवर्षि नारद के अवतार श्रीवास प्रभु की जय हो! जय हो! जय
हो! गौर-सुन्दर की सुन्दर-भक्ति का प्रचार करने वाले श्रीवास प्रभु की जय हो|२|
जो नारद वीणा वादन रत
सो श्रीवास प्रभुहि
बनि बिचरत||३|
अनुवाद : जो देवर्षि नारद सदैव वीणा वादन पूर्वक नारायण नाम का गान
करते हैं–
वे ही अब गौर लीला में श्रीवास प्रभु बन कर विचरण कर रहे
हैं|३|
प्रभु श्रीवासहिं पण्डित जय जय|
हरि धाय मालिनी को जय जय||४|
अनुवाद : श्रीवास गोसाईं की जय हो! जय हो! जो भगवान् की भी धाय माँ
हैं–
ऐसी श्रीवास प्रभु की अर्धांगिनी श्रीमती मालिनी देवी की जय
हो! जय हो|४|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कृष्णलीला में जो उनकी ‘अम्बिका’ नाम की धायमाँ हैं, वे ही अब गौरलीला में उनकी धायमाँ श्रीमती मालिनी देवी बन
कर प्रकट हुई हैं|
गौरकृष्ण जब परगट होवहिं|
मालिनी तिनि धाय बनि आवहिं||५|
अनुवाद : कृष्णलीला में जो उनकी ‘अम्बिका’ नाम की धायमाँ हैं, वे ही अब गौरलीला में उनकी धायमाँ श्रीमती मालिनी देवी बन
कर प्रकट हुई हैं| जब भगवान् गौर हरि शिशु के रूप में प्रकट हुए–
तब मालिनी देवी उनकी धाय माँ बन कर उनके घर पा आ गयीं थीं|५|
हरि ह्वैं जू जब बालक रूपा|
तिनि मालिनी साजहिं अनूपा||६|
अनुवाद : जब गौरांग महाप्रभु एक छोटे से बालक ही थे–
तब मालिनी देवी ही उन्हें विभिन्न प्रकार से सजाती थीं|६|
पर्वत मुनि जिनि वेद पुकारहिं|
सो श्रीराम भ्रातु बनि आवहिं||७|
अनुवाद : सभी शास्त्र जिनको ‘पर्वत-मुनि’ कह कर के पुकारते हैं– वे ही अब गौर लीला में श्रीवास प्रभु के भ्राता श्रीराम
प्रभु बन का आये हैं|७|
नित्यानंद बंग जब आवहु|
श्रीवासहिं गृह माहि रहावहु||८|
अनुवाद : जब नित्यानंद प्रभु बंगाल में आये,
तब वे श्रीवास प्रभु के घर पर ही रहा करते थे|८|
तिनि कु मालिनी पुत्रहिं मानैं|
तिनि अंचल प्रभु मातहिं जानैं||९|
अनुवाद : श्रीमती मालिनी देवी उनको पुत्र मान कर के उनका लालन पालन
करती थीं|
नित्यानंद प्रभु भी मालिनी देवी को अपनी माता ही मानते थे|९|
गौर प्रथम परकास कियो है|
तिनि प्रभु के ही सदन भयो है||१०|
अनुवाद : गौरांग महाप्रभु ने सर्वप्रथम अपने अन्तरंग भक्तों के
सामने अपनी भगवत्ता का प्रकाश करने की जो (सप्त-प्रहरिया महाभाव-प्रकाश) लीला की
थी–
वह लीला श्रीवास प्रभु के घर पर ही हुई थी|१०|
निशा काल प्रति घर इन्ही को|
गौर करैं कीर्तन हरि ही को||११|
अनुवाद : गौरांग महाप्रभु प्रति रात्री श्रीवास सदन में आते थे तथा
सभी पार्षदों के साथ मिल कर अपने ही नाम का संकीर्तन किया करते थे|११|
तिन्ही घर नारायणी कन्या|
गौर करि तिनि प्रेम सों वन्या||१२|
अनुवाद : श्रीमती नारायणी देवी भी उस समय वहां पर उपस्थित थीं|
गौरांग महाप्रभु ने उन पर बहुत कृपा की एवं उन्हें
कृष्ण-प्रेम की बाढ़ से आप्लावित कर दिया|१२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीवास प्रभु के बड़े भ्राता श्रीमान नलिन पंडित प्रभु की ‘नारायणी’ नामक एक पुत्री थी| कृष्णलीला में उनकी
धायमाँ अम्बिका की जो ‘किलिम्बिका’ नाम की बहन हैं, वे ही अब गौरलीला में श्रीवास प्रभु की भतीजी ‘नारायणी’ देवी बन कर प्रकट हुई हैं| जब महाप्रभु श्रीवास प्रभु के घर संकीर्तन किया करते थे,
तब नारायणी देवी एक छोटी सी बालिका ही थीं|
वे उस समय संकीर्तन में उपस्थित रहा करती थीं|
एक समय महाप्रभु ने सब भक्तों को उनका इच्छित वरदान दिया,
तब महाकृपा रूप अपना उच्छिष्ट महाप्रसाद उन्होंने नारायणी
देवी को भी प्रदान किया था| (तबे त’ करिल सब भक्ते वरदान| उच्छिष्ट दिया नारायणीर करिल सम्मान||– चै॰च॰ १/१७/२३०)
तिनहि जयो वृन्दावन ठाकुर|
लिखिहु भागवत प्रभु-प्रेमान्कुर||१३|
अनुवाद : उन्हीं नारायणी देवी के गर्भ से महाकवि श्रील वृन्दावन दास
ठाकुर प्रकट हुए जिन्होंने प्रभु-प्रेमान्कुर-स्वरूप श्रीचैतन्य-भागवत की रचना
करके गौरांग महाप्रभु की लीलाओं का विस्तार पूर्वक वर्णन किया|१३|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: नारायणी देवी के पति ‘वैकुण्ठदास विप्र’ का देहांत तभी हो गया था जब नारायणी देवी के गर्भ में ‘श्रील वृन्दावनदास ठाकुर’ विराजमान थे| कृष्णलीला में जो महाभारत तथा श्रीमद्भागवतम् के रचयिता
महाकवि एवं महान ऋषि ‘श्रील व्यासदेव’ हैं, वे ही अब गौरलीला के व्यासदेव (श्रील वृन्दावन दस ठाकुर) बन
कर प्रकट हुए हैं| इन्होने ही गौरलीला का विस्तारपूर्ण विवरण अपने महान ग्रन्थ
‘चैतन्य-भागवत’ में दिया है| श्रीचैतन्यभागवत तथा गौरलीला से सम्बंधित अन्य ग्रन्थ किसी
भी गौड़ीयमठ अथवा इस्कॉन मंदिर से प्राप्त सकते हैं|
एक बार प्रभु भक्तन संगा|
करि बहु विधि संकीर्तन रंगा ||१४|
अनुवाद : एक समय गौरांग महाप्रभु श्रीवास प्रभु के घर के आँगन में
कृष्णनाम संकीर्तन कर रहे थे|१४|
वासहिं पुत्र तबहि तिस काला|
छाड़ि दई स्वासन की माला||१५|
अनुवाद : उसी समय घर के अन्दर श्रीवास प्रभु के पुत्र का देहांत हो
गया|१५|
नारी गन जब रोवन लागी|
तिनि प्रभु बैन उचारन लागी||१६|
अनुवाद : सभी नारियां मृत बालक के शव को देख कर रोने लगीं|
लेकिन श्रीवास प्रभु ने उन्हें ऐसा करने से मना कर दिया|१६|
गौर प्रभु अभी नृत्य करत हैं|
तैं रोदन सों बिघन परत हैं||१७|
अनुवाद : श्रीवास प्रभु ने कहा– “गौरांग महाप्रभु बाहर आँगन में हो रहे संकीर्तन में नृत्य
कर रहे हैं| तुम्हारे रोने की आवाज़ से उनके नृत्य करने में विघ्न पड़
सकता है|”|१७|
सोहि भांति जे रोदन करिहौं|
निज प्राणनि जावहिं दै धरिहों||१८|
अनुवाद : “यदि इसी ही प्रकार से तुम सभी रोती रहीं,
तो मैं अभी इसी समय गंगा जी में डूब कर अपने प्राणों का
त्याग कर दूंगा”|१८|
नृत्य गौर सुन्दर प्रभु करिहैं|
की कारन रस थिर नहि परिहैं||१९|
अनुवाद : उधर बाहर आँगन में गौरांग महाप्रभु नृत्य कर रहे थे|
संकीर्तन के समापन होने के पश्चात गौरांग महाप्रभु ने कहा–
“आज संकीर्तन के समय
नृत्य करने में आनंद की वैसी स्थिरता नहीं थी जैसे प्रतिदिन होती है|
इस का क्या कारण है?”|१९|
जब चीन्हें प्रभु पुत्र गयो है|
क्रंदन सबही ओर भयो है||२०|
अनुवाद : जब सभी ने गौरांग महाप्रभु को बताया की घर के अन्दर
श्रीवास प्रभु के पुत्र का देहांत हो गया है– तब सब ही ओर बहुत ही मार्मिक क्रंदन छा गया|२०|
गौर प्रेमबस क्रंद कियो है|
तिनि सेवा महिमण्ड कियो है||२१|
अनुवाद : अपने प्रति श्रीवास प्रभु की प्रेमभक्ति को देख कर गौरांग
महाप्रभु भी प्रेम के वशीभूत हो कर क्रंदन करने लगे| वे बार बार श्रीवास प्रभु की शुद्ध सेवा को महिमा-मण्डित
करने लगे|२१|
मो कारन ना करहिं प्रकासा|
के बिधि छाड़हु तैं श्रीवासा||२२|
अनुवाद : उन्होंने कहा– “मेरे सुख के लिए तुमने ऐसा दुखद समाचार भी प्रकाशित नहीं
होने दिया| भला तुम्हारे जैसे प्रेमी-भक्तों को मैं कैसे छोड़ सकता हूँ?”|२२|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: तुम्हारे जैसे प्रेमीभक्तों को कैसे छोड़ सकता हूँ?–
जब भक्तों ने यह शब्द सुने, तो वे भयभीत हो गए क्योंकि उन्हें यह आशंका सताने लगी की
महाप्रभु अब उन्हें कहीं छोड़ कर तो नहीं चले जायेंगे?
और हुआ भी ऐसा ही– कुछ ही दिनों में महाप्रभु संन्यास ग्रहण करके श्रीजगन्नाथ
पुरी आ गए|
गौर जीव को पुनहि बुलावहिं|
मृत सरीर महि जीबन आवहिं||२३|
अनुवाद : तब गौरांग महाप्रभु ने मृत बालक के जीव का आह्वान किया|
जब वह जीव अपने मृत शरीर में प्रविष्ट हुआ,
तो वह शरीर पहले के समान ही जीवित हो उठा|२३|
सो पूछहिं के काज पठायो|
तोर नियम पालनहिं पलायो||२४|
अनुवाद : गौरांग महाप्रभु ने उस बालक से पूछा की तुम किस कारण से सब
को छोड़ कर चले गए थे? तब उस बालक ने उत्तर दिया– “हे प्रभु! मैंने तो आपके ही बनाए हुए नियम का पालन किया है|२४|
सब जीवहिं के प्राण नाथ हो|
नित सम्बन्ध तुम के साथ हो||२५|
अनुवाद : एकमात्र आपही संसार के समस्त जीवों के प्राणनाथ हो तथा सभी
जीवों का केवल आपसे ही सनातन सम्बन्ध है|२५|
सो सम्बन्ध जीव बिसरे हैं|
जन्म मरण को पुनि पुनि परे हैं||२६|
अनुवाद : जीव अनादि काल से इस सनातन सम्बन्ध को भूल कर जन्म-मरण के
चक्र में पड़े हुए हैं|२६|
औरन सों सम्बन्ध जयो जू|
अन्तकाल को नष्ट भयो जू||२७|
अनुवाद : जो माता, पिता, बन्धु, भाई तथा सम्बन्धी आदि अन्य लोग हैं–
उनके सम्बन्ध को तो विकराल काल अंत समय में कुठाराघात कर के
नष्ट कर देता है”|२७|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: सम्बन्धियों से सम्बन्ध केवल देह के कारण ही होता है|
जब देह ही हमेशा के लिए नहीं रहेगा तो उससे होने वाले सम्बन्ध
आखिर कर तब रहेंगे?
ऐसो कहि के जीव पठायो|
तिस सुनि के उर ममता जायो||२८|
अनुवाद : | उस जीव की बात को सुन कर सभी के मन से मोह-ममता चली गयी|२८|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: भगवान् तो श्रीवास आँगन में पहले से ही विराजमान थे|
अत: वह जीव उस समय उनको छोड़ कर कहाँ चला गया?
इस का पहला कारण– भगवान् की कृपा से वह बालक श्रीगोलोकधाम को प्राप्त कर चुका
था,
अत: उस जीव का आना और जाना केवल महाप्रभु की लीला ही है| दूसरा कारण–
भगवान् यह सिद्ध करना चाहते हैं की आत्मा अजर-अमर है|
शरीर के नाश होने पर भी उसका नाश नहीं होता|
तीसरा कारण है निराकारवादियों के मत का खंडन करना|
निराकारवादी कहते हैं की मोक्ष के उपरान्त जीव परब्रह्म से
मिलकर परब्रह्म ही हो जाता है तथा अपना स्वरूप खो देता है,
जैसे ज्योति में ज्योति समा जाती है|
किन्तु यदि यह सच होता, तो वह मुक्त जीव भला कैसे पुनः भगवान् के बुलाने पर वापिस
आता?
जीव चाहे माया-बद्ध हों चाहे मुक्त हों –
वे दोनों अवस्थाओं में चितकण अणुस्वरूप ही रहते है|
मुक्त होने पर भी वे भगवान् के समान विभु नहीं होते|
(प्रकृतिं कवलितान्
तद्विमुक्तान्श्च भावाद् – दशमूल सिद्धांत)
हरि कहि तिनि मृदु सुन्दर बानी|
निज सुत आपनि हम कउ जानी||२९|
अनुवाद : तब गौरांग महाप्रभु ने श्रीवास प्रभु को यह सुन्दर तथा
मधुर वचन कहे– “हे श्रीवास! आज से तुम हमें ही अपना पुत्र जानो”|२९|
हरि वासहिं को यह वर दीनै|
उदर भरै जे ना किछु कीनै||३०|
अनुवाद : गौरांग महाप्रभु ने श्रीवास को यह वर दिया था–
हे श्रीवास! यदि तुम अपना तथा अपने परिवार का भरण पोषण करने
के लिए कोई कार्य नहीं करोगे |३०|
मम प्रताप कारन तिन तबहीं|
जो चहिहौं सो पावहिं सबहीं||३१|
अनुवाद : तो भी तुम्हें जिस वस्तु की आवश्यकता होगी–
मेरी कृपा से वह वस्तु स्वयं चल कर तुम्हारे सामने उपस्थित
हो जायेगी”|३१|
श्रीवासनि आँगन हरि राये|
निज अवतारनि लै प्रकटाये||३२|
अनुवाद : श्रीवास प्रभु के आँगन में ही गौरांग महाप्रभु ने अपने सभी
अवतारों का प्राकट्य किया– |३२|
राम-सिंह-वाराह रसाला|
प्रकटहिं सप्त प्रहर तिनि काला||३३|
अनुवाद : राम अवतार, नृसिंह अवतार तथा वाराह अवतार इत्यादि अनेक रूपों के दर्शन
सात प्रहर तक अपने पार्षदों को प्रदान किये|३३|
श्रीवासहिं सेवा के फलसों|
तिनि सेवक देखहिं अचरजसों||३४|
अनुवाद : श्रीवास प्रभु की सेवा करने के फल के कारण ही उनके घर के
दास-दासियों ने भी आश्चर्य-चकित होकर भगवान् के इन सभी रूपों के साक्षात दर्शन
प्राप्त किये|३४|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: किसी महाभागवत शुद्धभक्त की सेवा करने का फल यही है की
भगवान् के दर्शन सहज ही सुलभ हो जाते हैं|
सब सेवक गंगा जल लइहैं|
हरि जू को अभिसेक करइ हैं||३५|
अनुवाद : सभी दास-दासियाँ गंगाजल से भरे हुए पात्र अपने सर पर उठा
लाते थे तथा श्रीवास आँगन में विराजमान गौरांग महाप्रभु का जल से अभिषेक करते थे|३५|
तिनि सेविका ‘दुखी’ असि नामा|
करिहैं सेवा सुन्दर कामा||३६|
अनुवाद : उन दासियों में एक दासी थी जो गौरांग महाप्रभु की बहुत
सेवा करती थी, लेकिन सभी लोग उसको प्रारम्भ से ही ‘दु:खी’ कह कर बुलाया करते थे|३६|
कहन लगे हरि सुन्दर बचना|
मो सेवक नहु दुख मम रचना||३७|
अनुवाद : गौरांग महाप्रभु ने सब को सुन्दर वचन कहे–
“जो जीव एकमात्र मेरी
ही सेवा में रत हैं, उन्हें संसार में कभी भी दुःख नहीं हो सकता”|३७|
प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: संसार में सभी जीव केवल एक ही लक्ष्य के लिए चेष्टा करते
हैं और वह लक्ष्य है– सुख की प्राप्ति| किन्तु जब तक वह चेष्टाएं जीव अपने ही सुख के लिए करते रहते
हैं–
तब तक आनंद से वंचित रहते हैं|
किन्तु जब सभी चेष्टाएं रस के एकमात्र मूल गौरकृष्ण की ओर
उन्मुख होती हैं, तब जीव को संसार के दुःख व्यापते नहीं|
तब ही उन्हें आनंद की प्राप्ति होती है,
क्योंकि कृष्ण रसस्वरूप हैं| (ॐ रसो वै सः। रसं ह्येवायं लब्ध्वाSSनन्दी भवति।– यजुर्वेद, तैत्तिरीयोपनिषत् २-७-२)
तिसि कारन कै गौर दयानिधि|
नाम ‘सुखी’ यह दीन्ह कृपानिधि||३८|
अनुवाद : इसी कारण से कृपानिधि गौरांग महाप्रभु ने उस दासी का नाम
उसी दिन से ‘सुखी’ रख दिया|३८|
जब हरि जगन्नाथ पुरि आये|
तिनि दरसनु प्रति बरसहिं आये||३९|
अनुवाद : जब गौरांग महाप्रभु संन्यास ले कर जगन्नाथ पुरी आ गए,
तब श्रीवास प्रभु तथा मालिनी देवी प्रति वर्ष उनके दर्शन
करने बंगाल से पुरी आया करते थे|३९|
प्रभु श्रीवास मालिनी चरना|
सो जहाज हैं भव को तरना||४०|
अनुवाद : श्रीवास प्रभु तथा श्रीमती मालिनी देवी के चरण इस संसार से
तरने के लिए जहाज़ के समान हैं|४०|
|| राग दरबारी ||२|
||
मनहरण घनाक्षरी छन्द ||१||
नारायण नारायण
हरि नाम परायण
वीणा वादन गायन
गुरु सो महान हैं|
पञ्चरात्र भक्तिशास्त्र
प्रकट कियो है जिनि
सो नारद ही श्रीवास
गौर के परान हैं||१|
अनुवाद : जो सदा अपनी वीणा पर “नारायण! नारायण!” गाते रहते हैं तथा सदैव ही हरिनाम गान के परायण हैं,
जो सभी वैष्णवों के महान गुरु हैं,
जिन्हों ने “पांचरात्र” नामक महान भक्तिशास्त्र का प्राकट्य किया है–
वे देवर्षि नारद ही अब गौर लीला में गौरांग महाप्रभु के
प्राणस्वरूप “श्रीवास प्रभु” बन कर आये है|१|
श्रीवास चालीसा यह
भक्त कथा युक्त भई
भक्त गुन गान हरि
गान ते महान है|
कृष्णदास वर चाहे
रसना सदा ही गाये
भक्त गुनगान जब
निकसे परान हैं||२|
अनुवाद : यह श्रीवास चालीसा भगवान् के शुद्धभक्त श्रीवास प्रभु की
कथा से परिपूर्ण है| भक्तों का गुणगान कृष्ण गुणगान से भी उत्तम होता है|
“कृष्णदास”
यही वर चाहते हैं की जब अंत समय में देह से प्राण निकलें,
तब उस समय जीह्वा से भक्तों के गुणगान में ही रत हो|२|