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अध्याय २ - निवेदन प्रकाश

|| निवेदन प्रकाश ||||
|| राग दरबारी |||
|| मनमोहन-छन्द |||

अवगुन गन जब जान परत|
निज परछाईं करउ नसत||१| ||विश्राम||

अनुवाद: जब अवगुण प्रकट हो गए, तो मेरी परछाईं भी मुझ से भाग खड़ी हुई ||१| ||विश्राम||

|| दोहरा-छन्द |||

वैष्णव जन की सूचि में
हम न परैं हम नीच|
जैसे काग सुहाय ना
सब हंसन के बीच|||

अनुवाद: पतित होने के कारण वैष्णव जन की सूची में हमारा नाम सम्मिलित नहीं है| (उस सूची में हमारा नाम यदि सम्मिलित कर भी लिया जाए तो वह उसी प्रकार नहीं सुहायेगा जैसे–) सफेद हंसों की सभा में काला कौव्वा नहीं सुहाता||

छन्द काव्य रचना कठिन
मात्रा बरन विधान|
सो उर में आवे नहीं
मूरख हम को जान|||

अनुवाद: छन्द-काव्य रचना बड़ी कठिन है क्योंकि छन्द रचना में वर्ण, मात्रा, यति, गति, लय, तुक एवं गण इत्यादि की संख्या के कठोर विधान हैं| हमें मूर्ख जान कर के यह विद्या भी हमारे हृदय में सहज प्रकाशित नहीं होती||

एकल गुन इन छन्द में
गौर-निताई नाम|
पद-पद के पग-पग सजे
भक्तन को सुखधाम|||  

अनुवाद: इन ग्रन्थ के छन्द-काव्य में बस एक ही गुण हैऔर वह गुण है की इस ग्रन्थ के प्रत्येक पद में पग-पग पर गौर-निताइ का वह मंगलमय नाम आया है, जोकि सभी भक्तों के लिए सुखधाम-स्वरूप है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका:  श्रील व्यासदेव जी जब चारों वेदों, उपनिषदों, पुराणों, महाभारत आदि ग्रन्थ समूह को लिपिबद्ध करने के पश्चात भी अशांत बैठे हुए थे, तब नारद जी ने आ कर उनसे (भागवत १/५/१०-११) कहा था
न यद्वचश्चित्रपदं हरेर्यशो जगत्पवित्रं प्रग्रिणीत कार्हिचित्|
यद्वायसं तीर्थमुशंति मनसा न यत्र हंसा निर्मन्त्युशिक्ष्या:||
जो काव्य रचना रस-अलंकार आदि नियमों की दृष्टि से तो उत्तम है, किन्तु जिस के द्वारा पवित्रकीर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के सुंदर यश का कीर्तन नहीं होता, वह रचना तो कौव्वों के तीर्थस्थल (उनके लिए जूठन फेंकने के स्थान के समान) अपवित्र ही है| मानसरोवर के कमनीय कमल वन में विचरण करने वाले हंसों की भाँती भगवच्चरणारविन्दाश्रित परमहंस भक्त उसमें कभी भी रमण नहीं करते|    
तद्वाग्विसर्गो जनताघविप्लवो यस्मिन् प्रतिश्लोकमबद्धवत्यापि|
नामान्यनन्तस्य यशोSङ्कितानि यच्छृण्वन्ति गृणन्ति साधव:||
किन्तु इसके विपरीत जो काव्य-रचना नियम एवं अलंकार आदि की दृष्टि से उत्तम नहीं है तथा दूषित शब्दों से भी भरी हुई है, किन्तु जिसका प्रत्येक श्लोक भगवान् के सुयशसूचक नामों से युक्त हैवह वाणी सुनने वालों तथा गाने वालों के पाप-समूहों का नाश कर देती है| संत-महापुरुष सदैव ऐसी ही वाणी का श्रवण, मनन और कीर्तन किया करते हैं|

नित्यानंद प्रताप ते
हम चालीस बखान|
लक्ष कोटि हम ते अधिक
हैं कविभक्त सुजान|||

अनुवाद: एकमात्र नित्यानंद प्रभु की कृपा के सहारे ही मैं इस श्रीपञ्चतत्त्व-चालीसानाम ग्रन्थ को लिख रहा हूँ, अन्यथा (हम तो कुछ भी नहीं हैं–) इस जगत में हम से अतिउत्तम महाभक्त-महाकवि लाखों और करोड़ों हैं||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: नित्यानंद प्रभु सदा ही गौर-कृष्ण के प्रेम में मत्त रहते हैं| वे महाकृपा के अवतार हैं| उनकी कृपा उत्तम तथा अधम का विचार नहीं रखती| जो कोई भी उनके आगे आ जाता है, उसी का ही वे उद्धार कर देते हैं| श्रीचैतन्य चरितामृत के रचयिता श्रील कृष्णदास कविराज गोस्वामी नित्यानंद प्रभु की कृपालुता तथा अपनी वैष्णव-स्वभावोचित दीनता का प्रकाश करते हुए कह रहे हैं
प्रेमे मत्त नित्यानंद कृपा अवतार| उत्तम अधम किछु न करे विचार||
जे आगे पड़ये तार करये उद्धार| अतेव निस्तारिल मोहेन दुराचार||
श्री राधिका की प्रिय कस्तूरी मंजरीनामक सखी ही अब गौर लीला में महाकवि श्रील कृष्णदास कविराज के रूप में प्रकट हुई हैं| किन्तु ऐसा होने पर भी दीनता वश उन्होंने स्वयं के लिए मोहेन दुराचार’– ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है|