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अध्याय ९ - गदाधर चालीसा प्रकाश

|| गदाधर चालीसा प्रकाश ||||
 || राग कलावती |||
|*| रोला-छन्द |*||

चौथे तत्त्व बखान
गदाधर नाम कहायें|
भक्त-शक्ति तिनि जान
यश सरिता में नहायें||| ||विश्राम||

अनुवाद: अब हम पंचतत्त्व में चौथे तत्त्वश्री गदाधर प्रभु का चालीसा-गान कर रहे हैं| सभी भक्त इनको पञ्चतत्त्व में भक्त-शक्तिजान करके इनकी यश रूपी सरिता में स्नान करते हैं|| ||विश्राम||

|*| चौपाई छन्द |*||

जय गदाधर माधव नन्दनहिं|
अभिनन्दन रत्नावती सुतहिं |||

अनुवाद : श्रीमान माधव मिश्र के सुपुत्र श्रीमान गदाधर प्रभु की जय हो! श्रीमती रत्नवती के सुपुत्र गदाधर प्रभु का अभिनन्दन है||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीगदाधर प्रभु का प्राकट्य सन १४८६ में बेलेति नामक ग्राम में हुआ, जोकि अब बांग्लादेश के चट्टग्रामजिले में आता है| कृष्ण की प्राणप्रिया श्रीमती राधिका ही अब गौर लीला में गदाधर प्रभु बन कर प्रकट हुई हैं| कृष्णलीला में जो श्रीमती राधिका के पिता श्रीमान वृषभानुमहाराज हैं, वे ही अब गौर लीला में दो रूपों में प्रकट हुए हैंगदाधर प्रभु के पिता माधव-मिश्रएवं उनके दीक्षागुरु पुण्डरीक विद्यानिधि’| कृष्णलीला में जो श्रीमती राधिका की माता कीर्तिदा-सुंदरीहैं, वे ही गौर लीला में गदाधर प्रभु की माता रत्नावतीएवं उनकी गुरुमाँ (पुण्डरीक विद्यानिधि की भार्या) रत्नावलीके रूप में प्रकट हुई हैं|

जय राधिका अभिन्न गदाई|
जय अभिन्न शक्तिहि हरिराई|||

अनुवाद : श्रीमती राधारानी से अभिन्न गदाधर प्रभु की जय हो! श्री हरिराय की निज शक्ति से अभिन्न गदाधर प्रभु की जय हो||

जिन को भाव अनंत अपारा|
आस्वादन को हरि अवतारा|||

अनुवाद : श्रीमती राधारानी के हृदय में उत्पन्न होने वाले भाव अपार हैं| उन भावों का रसास्वादन करने के लिए ही कृष्ण गौर-सुंदर के रूप में अवतार लेते हैं||

सोहि राधिका बनैं गदाधर|
गौर दास बन के अति सुन्दर|||

अनुवाद : वे श्रीमती राधिका ही अब गौर लीला में गौरांग महाप्रभु के अति सुन्दर दासगदाधर प्रभु के रूप में प्रकट हुई हैं||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कृष्णलीला में राधिका माधुर्य-भावमें स्थित हैं और गौर लीला में वही गदाधर प्रभु के रूप में दास्य-भावमें स्थित रहती हैं|

एक बार हरि सजिहैं धामा|
संग राधिका सब गुन धामा|||

अनुवाद : कृष्णलीला में राधिका माधुर्य-भावमें स्थित हैं और गौर लीला में वही गदाधर प्रभु के रूप में दास्य-भावमें स्थित रहती हैं| एक समय भगवान् कृष्ण अपने धाम गोलोक में विराजमान थे| उनके संग में सब गुणों की धाम-स्वरूपा श्रीमती राधिका भी विराजमान थीं||
श्री कहिहैं हरि सों मुसकाना|
स्वप्न देखिहौं सुन्दर स्थाना|||

अनुवाद : तब श्रीमती राधिका जी मंद मुस्कान से युक्त हो कर श्रीकृष्ण से कहने लगीं– “हे प्रभु! मैंने आज स्वप्न में एक बहुत ही सुन्दर धाम के दर्शन किये!”||

ब्रज महि जो किछु साजे जैसे|
सो तिस धामहि देखहिं तैसे|||

अनुवाद : इस ब्रजधाम में को कुछ भी विद्यमान है, वह सब कुछ मैंने उस धाम में भी दर्शन किया||

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: यहाँ पर राधिका जी श्रीनवद्वीपधाम का वर्णन कर रही हैं| श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर स्वरचित स्वप्न-विलासामृताष्टकम्में लिखते हैं
प्रिय! स्वप्ने दृष्ट्वा सरिदिन पुलिनं यथा वृन्दारण्ये नटनपटवस्त्र वह्व:|
मृदंगाद्यंवाद्यं विविधमिह कश्चिदिद्विजमणि: स विद्युद्गौरांग: क्षित्तपति जगतीं प्रेम जलधौ||
हे प्रिय! आज स्वप्न में मैंने एक धाम के दर्शन किये| मैंने देखा की जैसे वृन्दावन में यमुना बहती रहती हैं, उस धाम में भी उसी प्रकार से एक नदी (गंगा) बह रही हैं| जैसे वृन्दावन में रेत के कई सुन्दर पुलिन हैं, वैसे ही उस धाम में भी हैं| जैसे वृन्दावन में राग-रागिनियों पर मृदंग बजते रहते हैं तथा सभी लोग नृत्य-गीत गायन की कला में निपुण हैं, वैसे ही उस धाम के लोग भी कीर्तन-गायन की कला में निपुण हैं| मैंने देखा की बिजली की तरह चमकने वाली मेरी गौरकान्ति से युक्त एक गौरांग विप्र सारे ब्रह्माण्ड को प्रेम के समुद्र में डुबा रहे हैं|

देखहिं विप्र एक अति सुन्दर|
मो सम भाव तिनहिं हिय अन्दर|||

अनुवाद : उस धाम में मैंने एक अति सुन्दर ब्राह्मण कुमार को देखा, जिनके ह्रदय में बिलकुल वही भाव उत्पन्न हो रहे थे जो मेरे ह्रदय में आपके लिए उत्पन्न होते हैं||

जो केवल मम हियहिं रयो जू|
तिनि हिय कैसे प्रकट भयो जू|||

अनुवाद : बड़े ही आश्चर्य की बात है की वह सब भाव तो केवल मेरे ह्रदय में ही प्रकट होते हैंतो फिर वह भाव भला उन विप्र महाशय के ह्रदय में कैसे उत्पन्न हो गए||

बरन हमारो रूप तिहारो|
मोर मुकुट बंसी ना धारो||१०|

अनुवाद : उस ब्राह्मण कुमार का वर्ण (शरीर की कान्ति) तो मेरे शरीर की तरह गौर थी लेकिन उनका मुखमंडल आपके समान था, तथापि उनके शीश पर ना तो मोर मुकुट था और ना ही आपकी तरह उनके पास बांसुरी थी?|१०|

रूप मोर के तोर रूप है|
मिलित रूप के अन्य रूप है||११|

अनुवाद : स्वप्न में उनका दर्शन कर के मैं अचरज में पड़ गयी की कहीं मैं स्वयं ही तो उस गौरवर्ण कुमार के रूप में प्रकट नहीं हुई हूँ? अथवा कहीं वह आप ही तो नहीं हैं? अथवा वह हम दोनो के मिलित स्वरूप तो नहीं हैं? अथवा वह कोई अन्य तो नहीं हैं?|११|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: ततो बुद्धिर्भ्रान्ता मम समजनि प्रक्षय किमहो!’– यह देख कर मेरी बुद्धि भ्रमित हो गयी की वे महापुरुष आखिर कौन हैं?

सो सुनि हरि मणि चालित कीनो|
गौर रूप कै दरसन दीनो||१२|

अनुवाद : राधिका जी के यह वचन सुन कर प्रभु ने अपने वक्ष स्थल पर सजी हुई कौस्तुभ मणि को संचालित किया तथा उसी समय उस मणि के प्रकाश में गौरांग महाप्रभु के दर्शन प्रदान किये|१२|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: इति प्रोच्य प्रेष्ठां क्षाणमथ परामृष्य रमणो हसन्नाकुतज्ञं व्यनुददथ तं कौस्तुभमणिम्’– कृष्ण ने राधिका जी के इन वचनों को सुन कर कुछ क्षण के लिए विचार करके, फिर मंद हास्य से युक्त होकर अपनी कौस्तुभमणि का संचालन किया|

हरि कहिहैं यह रूप हमारा|
सब अवतारिन माहीं उदारा||१३|

अनुवाद : तब कृष्ण ने कहा की हमारा यह रूप हमारे सभी अवतारों में सब से उदार स्वरूप है|१३|

तैं अरु तोर सखिन कै संगा|
शिक्षा लैहौं रस कै रंगा||१४|

अनुवाद : मैं तुम्हारे तथा तुम्हारी प्रिय सखियों के साथ कलियुग में अवतरित हो कर उन सखियों के संग में रस की शिक्षा ग्रहण करूंगा|१४|

सो कलि महि सबहीं निस्तारा|
तो हिय लै तो भाव निहारा||१५|

अनुवाद : मैं कलियुग में अवतरित हो कर सभी का संसार समुद्र से उद्धार करूंगा तथा तुम्हारा ह्रदय लेकर तुम्हारे द्वारा आस्वादित गंभीर भावों का स्वयं आस्वादन करूंगा|१५|

श्री जू के उर भाव ग्रहन को|
गौर बरन है गौरहिं तन को||१६|

अनुवाद : श्रीमती राधारानी के ह्रदय में उत्पन्न उन भावों को स्वीकार करने के कारण ही भगवान् कृष्ण की अंगकान्ति गौरवर्ण हो गयी तथा श्याम-सुन्दर गौर-सुन्दर के रूप में प्रकट हो गए|१६|

राधा को सखि ललिता प्यारी|
रामानंद राय बनि आरी||१७|

अनुवाद : राधिका जी की प्यारी सखी ललिता भी गौर-लीला में रामानंद-रायबन कर के प्रकट हुईं|१७|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कृष्ण लीला में जो पांडवों के पिता महाराज पांडु हैं, वे ही गौर लीला में भावानंद-रायबन कर प्रकट हुए हैं| इन्हीं के घर में रामानंद-राय उनके पुत्र के रूप में प्रकट हुए हैं| कृष्ण लीला में जो स्वर्ग के राजा इंद्र हैं, वे ही गौरलीला में उस समय उड़ीसा के राजा महाराज प्रतापरूद्रके रूप में प्रकट हुए थे| श्रीरामानंदराय उनके राजदरबार में मंत्री थे तथा पुरी में वे श्रीजगन्नाथ मंदिर में सेवा-व्यवस्था करते थे| श्रीरामानंद राय एक महामहा-भागवतभक्त महापुरुष थे| उनके साथ चैतन्य महाप्रभु का संवाद श्री राय रामानंद संवादके रूप में सुप्रसिद्ध है तथा श्रीचैतन्यचरितामृत में इस संवाद का विषद वर्णन है| श्रीमद्भागवतम् में जो स्थान गोपीगीतको मिला है, वही स्थान चैतन्यचरितामृत में राय-रामानंद-संवादको प्राप्त हुआ है|

तिनि सखि बरु हि प्यारी विशाखा|
दामोदर स्वरूप रचि राखा||१८|

अनुवाद : राधिका जी की दूसरी अत्यंत प्यारी सखी विशाखा भी गौर लीला में स्वरूप-दामोदरके रूप में प्रकट हो गयीं|१८|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रील स्वरूप दामोदर पहले नवद्वीप धाम में पुरुषोत्तम-आचार्यके नाम से जाने जाते थे| जब महाप्रभु संन्यास लेकर पुरी धाम में आ गए, तब उनका वियोग सहन न कर सकने के कारण इन्होने वाराणसी में जा कर संन्यास ले लिया तथा इनका संन्यासी नाम स्वरूप-दामोदरहुआ| बाद में यह पुरी धाम में आ गए| चैतन्य चरितामृत (२/१०/११०) में वर्णन है
पाण्डित्येर अवधि, वाक्य नाहीं कारो सने| निर्जने रहये, लोक सब नाहीं जाने||
अर्थातस्वरूप दामोदर प्रभु भक्ति में महापण्डित थे, किन्तु वे किसी से अधिक बातचीत नहीं करते थे तथा निर्जन स्थान में एकांत ही रहना पसंद करते थे| इसीलिए लोग उनके बारे में अधिक नहीं जानते थे|

रागलेखा व कलाकेलि जू|
शिखि माहिती माधवी अलि जू||१९|

अनुवाद : राधिका जी की तीसरी सखी जिनका नाम रागलेखा हैवह गौर लीला में शिखी माहितीके रूप में प्रकट हुईं| राधिका जी की कलाकेलि नाम की सखी ही उन शिखी माहिती की बहन माधवीबन कर प्रकट हुईं|१९|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: उड़ीसा के श्रीजगन्नाथ पुरी मंदिर में शिखी माहिती लेखनाधिकारीके रूप में नियुक्त थे तथा वे मंदिर में होने वाले उत्सवों की तिथि एवं समय को निर्धारण करने के लिए वार्षिक पंजिका को लिखते थे : (शिखी माहिती नामे एइ लेखनाधिकारीचै॰च॰ २/१०/४२)| इन्हीं शिखी माहिती की बहन का नाम हैमाधवी देवी| वे वृद्धा, महा-तपस्विनी एवं परम-वैष्णवी थीं| (माहीतिर भगिनी सेइ नाम माधवी देवी| वृद्ध तपस्विनी आर परमवैष्णवी||– चै॰च॰ ३/२/१०४)| महाप्रभु इन्हें श्रीमती राधिका जी की प्रिय सखी मानते थे (प्रभु लेखा करे यांरराधिकार गणचै॰च॰ ३/२/१०५)| माधवी देवी की कृपा से ही शिखी माहिती को महाप्रभु की कृपा प्राप्त हुई थी| यह दोनों ही महाप्रभु को प्राणों के समान प्रिय थे तथा यह दोनों भी महाप्रभु के इलावा अन्य किसी को भी अपना आराध्य नहीं जानते थे|

परिषद लै के साढ़े तीना|
गौरहरि श्रीकथा रस पीना||२०|

अनुवाद : अपने इन्ही साढ़े तीन पार्षदों को लेकर गौरांग महाप्रभु रासलीला-कथा का श्रवण करते हुए श्रीमती राधिका जी के आन्तरिक भावों का रसास्वादन करते हैं|२०|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में ये साढ़े तीन पार्षद ही उनके महासौभाग्यशाली अन्तरंग पात्र थे| इन के नाम हैंस्वरूप दामोदर, राय रामानंद, शिखी माहीती एवं माधवी देवी, जिसमे से माधवी देवी केवल अर्धपार्षद ही मानी जाती हैं| (जगतेर मध्ये पात्र साढ़े तीन जन|| स्वरूप गोसाईं आर राय रामानंद| शिखी माहिती तिन तार भगिनी अर्धजन||– चै॰च॰ ३/२/१०५-१०६)| माधवी देवी स्त्री हैंइसीलिए उनको केवल अर्धपार्षद के रूप में ही स्वीकार किया जाता है| जब महाप्रभु कृष्ण के वियोग-भाव में अपने इन पार्षदों से पूछते थेतुम ही बताओमैं कहाँ जाऊं? क्या करूँ? मुझे कृष्ण कब मिलेंगे?– तब राय रामानंद, स्वरूप दामोदर एवं शिखी माहिती उन्हें उनके भावों के अनुसार कृष्ण-कर्णामृत, विद्यापति, तथा गीत-गोविन्द सुना कर आनंद प्रदान किया करते थे| (कर्णामृत, विद्यापति, श्रीगीतगोविन्द| इहार श्लोक गीते प्रभुर करये आनंद|| - चै॰च॰ ३/१५/२७)

श्रीराधा सखि और मन्जरी|
प्राय सबहि बनि पुरुस अवतरी||२१|

अनुवाद : श्री राधिका जी की सखियां तथा मंजरियांप्राय: सभी ही गौरलीला में पुरुष रूप में प्रकट हुईं|२१|

यतिहि धर्म प्रभु पालन करिहैं|
नारि के संग कबहु न परिहैं||२२|

अनुवाद : गौरांग महाप्रभु संन्यासी के वेश में हैंइसलिए वह नारियों का संग नहीं करते|२२|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: कृष्ण नागर’ (अथवा नटवर-नागर) कहलाते हैं क्योंकि वे सखियों के संग माधुर्यरस का आस्वादन करते हैं| किन्तु वही कृष्ण जब गौरलीला में संन्यास-आश्रम को अपनाते हैं तो उस आश्रम के  नियमों का पालन बड़ी ही कठोरता से करते हैंइसीलिए वे स्त्रियों का संग कदापि नहीं करते| यहाँ तक की संन्यास लेने से पहले भी वे सदाचार के नियमों का पालन करते थेसबे परस्त्रीर प्रति नाहि परिहास| स्त्री देखि दूरे प्रभु हयेन एकपाश|| - चै॰भागवत १/१५/१७भगवान् किसी भी परस्त्री से कभी भी हंसी-मज़ाक नहीं करते थे| यदि वे सामने से किसी स्त्री को आते हुए देखते तो उन्हें स्थान देने के लिए वे मार्ग के दूसरी तरफ हो जाते थे|

तिस घरि गदाधर नाहि आवैं|
सुनहु कारन सब चित्त लावैं||२३|

अनुवाद : (किन्तु जिस समय इन अन्तरंग पार्षदों के साथ महाप्रभु कृष्ण-कथा रस का पान करते थे) उस समय गदाधर प्रभु गौरांग के समक्ष उपस्थित नहीं होते थेअपने चित्त को लगाकर आप सब इस का कारण सुनिए|२३|

जे गदाधर तिस सदन रहिहों|
प्रभु आस्वादन बिघन परहिहों||२४|

अनुवाद : यदि गदाधर प्रभु उस समय गौरांग महाप्रभु के पास उपस्थित हो जाते, तो फिर भगौरांग महाप्रभु उनके भावों का रसास्वादन कैसे कर सकते हैं? (गदाधर प्रभु को सामने देख कर उनका यह भाव की मैं ही राधा हूँ”–भंग हो जाता)|२४|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: यद्यपि गदाधरप्रभु स्वयं राधारानी हैं, तो भी उनको महाप्रभु के साढ़े-तीन पार्षदों में सम्मिलित नहीं किया जाता| इसका पहला कारण है की जब महाप्रभु अपने इन अन्तरंग पार्षदों के साथ कृष्णकथा-रस का पान करते थे, तब उस समय वे अपने आपको राधिका-भावसे भावित अनुभव करते थे| यदि उस समय गदाधरप्रभु महाप्रभु के समक्ष उपस्थित होते, तो उनके राधिका-भावमें विघ्न पड़ता (क्योंकि गदाधर स्वयं राधिका ही हैं)| दूसरा कारणभगवान् यह शिक्षा देते हैं की माधुर्य-रसमें भगवान् की भक्ति तब तक संभव नहीं है जब तक श्रीराधा जी की प्रिय सखियों (अथवा गौरपार्षदों) का आनुगत्य ग्रहण न किया जाए| इसीलिए श्रील नरोत्तम दास ठाकुर अपने सखी-वृन्दे-विज्ञप्तिनामक गीत में कहते हैं ललिता विशाखा आदि जत सखी वृन्द|  आज्ञाय करिबो सेवा चरणारविन्द|| श्रीकृष्ण चैतन्य प्रभुर दसेर अनुदास| सेवा अभिलाष करे नरोत्तम दास||

हरि सन्यासी बनि पुरि आवहिं|
प्रभु खेत्र सन्यास अपनावहिं||२५|

अनुवाद : गौरांग महाप्रभु जब संन्यासी का वेश धारण कर के नवद्वीप से जगन्नाथ पुरी आ गए, तब श्रीमान गदाधर प्रभु ने भी क्षेत्र-संन्यास अपना लिया|२५|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: क्षेत्र-संन्यास का अर्थ है जब कोई यह व्रत ले की वह किसी एक स्थान को छोड़ कर कहीं और कदापि नहीं जायेंगे| गदाधर प्रभु ने सोचा की महाप्रभु अब जगन्नाथ पुरी को छोड़ कर कहीं नहीं जायेंगे, अत: उनकी सान्निध्य प्राप्ति के लिए ही गदाधर प्रभु ने क्षेत्र संन्यास का व्रत लिया|

तिनकु गौर नित दरसन करिहैं|
निस दिन हरिजस सरवन करिहैं||२६|

अनुवाद : गदाधर प्रभु का दर्शन करने के लिए गौरांग महाप्रभु स्वयं प्रतिदिन उनके पास आते थे तथा उनके श्रीमुख से हरियश का श्रवण करते थे|२६|

तिनसुं भागवत गौर सुनहिहैं|
कृष्ण कथा रस पान करहिहैं||२७|

अनुवाद : गदाधर प्रभु के श्रीमुख से गौरांग महाप्रभु श्रीमद्भागवतम् में वर्णित कृष्णकथा रस का पान करते थे|२७|

जो बरननि गदाधरहु करिहैं|
हरिजू व्यास शुकादि न परिहैं||२८|

अनुवाद : श्रीमद्भागवतम् में वर्णित कृष्णकथा की व्याख्या जैसी गदाधर प्रभु कर सकते हैं, वैसी व्याख्या स्वयं कृष्ण भी नहीं कर सकते; फिर वैसी व्याख्या भागवत के रचयिता व्यासदेव तथा कथाकार शुकदेव गोस्वामी तो कर ही कैसे सकते हैं?|२८|

शुक प्रभु जिनको नाम लुकावहिं|
भगवत सोहि गदाधर गावहिं||२९|

अनुवाद : शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित को कृष्णकथा सुनाते समय जिनके (श्रीमती राधाजी के) नाम को छुपा कर ही कहा था, वे राधा जी ही अब अपनी ही लीलाओं का वर्णन गौरलीला में गदाधर के रूप में करते हैं|२९|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: शुकदेव गोस्वामी श्रीमती राधारानी के प्रिय शुक पक्षी हैं तथा उनकी स्वामिनी राधिका जी हैं| महारस-भावुक होने के कारण वे राधानाम लेने मात्र से ही मूर्छित हो जाते हैं| अत: उन्होंने श्रीमद्भागवतम् में राधा जी के नाम तथा लीलाओं को छुपा कर ही कहा है, अन्यथा परीक्षित महाराज के प्रति कथा कहना संभव नहीं हो पाता| साधारण व्यक्तियों के लिए इन रहस्यमयी लीलाओं के तत्त्व को समझना असंभव है| केवल वृन्दावन के षडगोस्वामियों तथा गौड़ीय वैष्णवों की कृपा से ही इन लीलाओं के गूढ़ तत्त्व को कोई जान सकता है| इसीलिए कहा गया हैरूप रघुनाथ पदे हइबे आकुति| कबे हम बुझब से युगल पिरिति||–  श्रीरूपगोस्वामी तथा श्रीरघुनाथदास गोस्वामी के चरणों में मेरी आसक्ति कब होगी और कब मैं राधाकृष्ण की गूढ़ लीलाओं का रहस्य जान पाऊंगा?

एक समय श्रीगौरहु आये|
श्रीगदाधरहिं बचन सुनाये||३०|

अनुवाद : एक दिन गौरांग महाप्रभु गदाधर प्रभु से कहने लगे– |३०|

जो मम प्राननि को धन प्राना|
अब तुम प्रति हम करहि प्रदाना||३१|

अनुवाद : जो मेरे प्राणों के भी प्राणधन हैंमैं आज उनको तुम्हें समर्पित करता हूँ”|३१|

ऐसो कहि रज को बिलगावहिं|
गोपीनाथ तिसहिं दिखलावहिं||३२|

अनुवाद : ऐसा कह कर के महाप्रभु भूमी से रेत को हटाने लगे तथा श्रीगोपीनाथ जी का प्राकट्य किया|३२|

तिनहिं गदाधर सेवहि कैसे|
राखहिं नयन पुतलि को जैसे||३३|

अनुवाद : गदाधर प्रभु गोपीनाथ जी की सेवा कैसे करते हैंजैसे नयन पुतलियों की सेवा करते हैं|३३|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: श्रीजगन्नाथपुरी में टोटा-गोपीनाथ मंदिर में श्रीगोपीनाथ जी के दर्शन आज भी किये जा सकते हैं| ‘टोटाका अर्थ होता है बागीचा’| श्रीमद्भागवतम् ११/२७/१२ में भगवान् ने स्वयं मूर्ति-सेवन की महिमा बतायी हैशैली दारुमयी लौही लेप्या लेख्या च सैकती| मनोमयी मणिमयी प्रतिमाष्टविधा स्मृता||– भगवान् स्वयं अपनी मूर्ति के रूप में आठ प्रकार के पदार्थों में प्रकट होते हैंपत्थर, लकड़ी, धातु, मिट्टी, चित्र, रेत, मन अथवा रत्न| मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा के समय भगवान् उस अर्चामूर्ति में स्वयं विराजित हो जाते हैं| पाखण्डी एवं निराकारवादी मूर्तिपूजा को केवल पत्थर-पूजाअथवा बुत-परस्तीही मानते हैं| किन्तु पद्मपुराण में कहा गया है– “अर्च्ये शिलाधिर्गुरुषु नरमतिर्वैष्णवे जातिबुद्धिर....यस्य व नारकी स:”– जो लोग अर्चामूर्ति में शिला-बुद्धि, गुरुदेव में साधारण मनुष्य-बुद्धि तथा वैष्णवों में जाति-बुद्धि करते हैंवे सब अपराधी होने के कारण नरकों में कष्ट भोगते हैं| शुक्ल-यजुर्वेद (३२/१) में जो न तस्य प्रतिमा अस्ति कहा गया हैउसका यथार्थ अर्थ हैभगवान् अद्वितीय तत्त्व हैं|

एक दिनै गौरांग कृपाधर|
पुरि ते ब्रज को चलहिं दयाधर||३४|

अनुवाद : एक दिन कृपाधर गौरांग महाप्रभु जगन्नाथ पुरि को छोड़ कर ब्रज की ओर जाने लगे|३४|

गदाधरहि जो व्रत को सेवहिं|
तिनि व्रत को तब मान न देवहिं||३५|

अनुवाद : गदाधर प्रभु जिस (क्षेत्र-संन्यास के) व्रत का पालन कठोरता पूर्वक करते थेतब उस व्रत का मान भी उन्होंने नहीं रखा|३५|

पाछे पाछे हरि कै धावैं|
हरि तिस व्रत को स्मरन दिलावैं||३६|

अनुवाद : वे गौरांग महाप्रभु के पीछे पीछे भागते हुए बहुत दूर तक आ गएतब महाप्रभु ने उनको उनका (क्षेत्र-संन्यास का) व्रत बार बार याद दिलाया|३६|

प्रभु कहे ऐसो व्रत जे कोटि|
तबही छाड़ि दैहैं बहु कोटि||३७|

अनुवाद : गदाधर प्रभु महाप्रभु से कहने लगे– “आपके दर्शनों के लिए यदि ऐसे करोड़ों व्रत मुझे करोड़ों बार भी त्यागने पड़े तो मैं तुरंत त्याग दूंगा”|३७|

नयन अगोचर हरि निज कीन्ही|
तिनि बियोग अति पीड़ा दीन्हीं||३८|

अनुवाद : जब गौरांग महाप्रभु ने इस जगत से अपनी लीला का संवरण कर लिया तब गदाधर प्रभु के लिए उनका वियोग सहना दुष्कर हो गया तथा उनके वियोग में उन्हें अत्यंत पीड़ा होती थी|३८|

तिस एकादस माहहिं काला|
निजहिं अगोचर करहिं कृपाला||३९|

अनुवाद : इसी लिए कृपा की मूर्ति गदाधर प्रभु ने महाप्रभु के लीला संवरण करने के ग्यारह माह पश्चात ही इस जगत से अपनी लीला का भी संवरण कर लिया|३९|

प्रकाशिका वृत्ति नामक टीका: गौरांग महाप्रभु ने गोपीनाथ जी की श्रीमूर्ति में प्रवेश करके अपनी लीला का संवरण किया था| उनके अदृश्य होने के बाद गदाधर प्रभु उनके वियोग में बहुत ही जीर्ण-काय हो गए थे| यहाँ तक की उन्हें सीधा खड़े हो कर गोपीनाथ जी के गले में माला भी अर्पित करने में परेशानी आती थी| तब गोपीनाथ जी उनकी सुविधा के लिए स्वयं ही बैठ गए| आज पूरे संसार में केवल टोटा-गोपीनाथ मंदिर में ही ऐसी श्रीमूर्ति है जहाँ कृष्ण आसन लगा कर बांसुरी बजा रहे हैं|

गौर गदाधर महिमा भारी|
तिनि जस पे जइहौं बलिहारी||४०|

अनुवाद : श्रीगौर-गदाधर के नाम तथा लीला की महिमा बहुत भारी है| मैं श्रीमन्महाप्रभु तथा श्री गदाधर प्रभु के कथा-यश पर बलिहारी जाता हूँ|४०|

 || राग दरबारी |||
|| मनहरण घनाक्षरी छन्द ||||

जिनि कै हिय में ऐसे
ऐसे हाव भाव सजैं
हरि हू को तिनि भाव
बूझ नाहि परे हैं|

 ऐसो श्रीराधिका न्यारी
हरि जू को अति प्यारी
गदाधर रूप लै के
धरा अवतरे हैं|||

अनुवाद : जिनके ह्रदय में भगवान् कृष्ण के दर्शन तथा अदर्शन (वियोग) के कारण ऐसे अद्भुत महाभाव प्रकट होते हैं की स्वयं भगवान् कृष्ण को भी उन भावों को ठीक प्रकार से समझना कठिन प्रतीत होता हैऐसी सखियों में सब से न्यारी तथा कृष्ण की सबसे प्यारी सखी श्रीमती राधिका ही गौर-लीला में श्रीमान गदाधर के रूप में प्रकट हुई हैं||

गदाधर चालीसा सो
अति अद्भुत भई
जेई पाठ करे काल
त्रास नाहिं परे हैं|
  
कृष्णदास तिनि रति
प्रेम गति गूढ़ अति
मेरो मति लघु अति
बूझ नाहीं परे हैं|||

अनुवाद : यह गदाधर चालीसा बड़ी अद्भुत है| जो भी इस का पाठ करते हैंवे काल के चक्र में दोबारा नहीं पड़ते| कृष्ण दास कह रहे हैं श्रीमती राधिका के ह्रदय में श्रीकृष्ण के प्रति रति तथा उनके प्रति प्रेम की गति बड़ी ही गूढ़ हैभला मेरे जैसा लघु मति (छोटी बुद्धि का मनुष्य) इस गूढ़ तत्त्व को कैसे जान सकता है?||